प्रेम पर कबीर के दोहे

आगि आंचि सहना सुगम, सुगम खडग की धार

नेह निबाहन ऐक रास, महा कठिन ब्यबहार।

अर्थ- अग्नि का ताप और तलवार की धार सहना आसान है किंतु प्रेम का निरंतर समान रुप से निर्वाह अत्यंत कठिन कार्य है।


कहाँ भयो तन बिछुरै, दुरि बसये जो बास

नैना ही अंतर परा, प्रान तुमहारे पास।

अर्थ- शरीर बिछुड़ने और दूर में वसने से क्या होगा? केवल दृष्टि का अंतर है। मेरा प्राण और मेरी आत्मा तुम्हारे पास है।


नेह निबाहन कठिन है, सबसे निबहत नाहि

चढ़बो मोमे तुरंग पर, चलबो पाबक माहि।

अर्थ- प्रेम का निर्वाह अत्यंत कठिन है। सबों से इसको निभाना नहीं हो पाता है। जैसे मोम के घोड़े पर चढ़कर आग के बीच चलना असंभव होता है।


प्रीत पुरानी ना होत है, जो उत्तम से लाग

सौ बरसा जल मैं रहे, पात्थर ना छोरे आग।

अर्थ- प्रेम कभी भी पुरानी नहीं होती यदि अच्छी तरह प्रेम की गई हो जैसे सौ वर्षों तक भी वर्षा में रहने पर भी पथ्थर से आग अलग नहीं होता।


प्रेम पंथ मे पग धरै, देत ना शीश डराय

सपने मोह ब्यापे नही, ताको जनम नसाय।

अर्थ- प्रेम के राह में पैर रखने वाले को अपने सिर काटने का डर नहीं होता। उसे स्वप्न में भी भ्रम नहीं होता और उसके पुनर्जन्म का अंत हो जाता है।


प्रेम पियाला सो पिये शीश दक्षिना देय

लोभी शीश ना दे सके, नाम प्रेम का लेय।

अर्थ- प्रेम का प्याला केवल वही पी सकता है जो अपने सिर का वलिदान करने को तत्पर हो। एक लोभी-लालची अपने सिर का वलिदान कभी नहीं दे सकता भले वह कितना भी प्रेम-प्रेम चिल्लाता हो।


प्रेम ना बारी उपजै प्रेम ना हाट बिकाय

राजा प्रजा जेहि रुचै,शीश देयी ले जाय।

अर्थ- प्रेम ना तो खेत में पैदा होता है और न हीं बाजार में विकता है। राजा या प्रजा जो भी प्रेम का इच्छुक हो वह अपने सिर का यानि सर्वस्व त्याग कर प्रेम प्राप्त कर । सकता है। सिर का अर्थ गर्व या घमंड का त्याग प्रेम के लिये आवश्यक है।


प्रीति बहुत संसार मे, नाना बिधि की सोय

उत्तम प्रीति सो जानिय, हरि नाम से जो होय।

अर्थ- संसार में अपने प्रकार के प्रेम होते हैं। बहुत सारी चीजों से प्रेम किया जाता है। पर सर्वोत्तम प्रेम वह है जो हरि के नाम से किया जाये।


प्रेम प्रेम सब कोई कहै, प्रेम ना चिन्है कोई

जा मारग हरि जी मिलै, प्रेम कहाये सोई।

अर्थ- सभी लोग प्रेम-प्रेम बोलते-कहते हैं परंतु प्रेम को कोई नहीं जानता है। जिस मार्ग पर प्रभु का दर्शन हो जाये वही सच्चा प्रेम का मार्ग है।


 प्रेरेम भक्ति मे रचि रहै, मोक्ष मुक्ति फल पाय

सब्द माहि जब मिली रहै, नहि आबै नहि जाय।

अर्थ- जो प्रेम और भक्ति में रच-बस गया है उसे मुक्ति और मोझ का फल प्राप्त होता है। जो सद्गुरु के शब्दों-उपदेशों से घुल मिल गया हो उसका पुनः जन्म या मरण नहीं होता है।


प्रेम प्रेम सब कोई कहै, प्रेम ना चिन्है कोई

आठ पहर भीना रहै, प्रेम कहाबै सोई।

अर्थ- सभी लोग प्रेम-प्रेम कहते है किंतु प्रेम को शायद हीं कोई जानता है। यदि कोई व्यक्ति आठो पहर प्रेम में भीन्गा रहे तो उसका प्रेम सच्चा कहा जायेगा।


हम तुम्हरो सुमिरन करै, तुम हम चितबौ नाहि

सुमिरन मन की प्रीति है, सो मन तुम ही माहि।

अर्थ- हम ईश्वर का सुमिरण करते हैं परंतु प्रभु मेरी तरफ कभी नहीं देखते है। सुमिरण मन का प्रेम है और मेरा मन सर्वदा तुम्हारे ही पास रहता है।


सौ जोजन साजन बसै, मानो हृदय मजहार

कपट सनेही आंगनै, जानो समुन्दर पार।

अर्थ- वह हृदय के पास हीं बैठा है। किंतु एक झूठा-कपटी प्रेमी अगर आंगन में भी बसा है तो मानो वह समुद्र के उसपार बसा है।


साजन सनेही बहुत हैं, सुख मे मिलै अनेक

बिपति परै दुख बाटिये, सो लाखन मे ऐक।

अर्थ- सुख मे अनेक सज्जन एंव स्नेही बहुतायत से मिलते हैं पर विपत्ति में दुख वाटने वाला लाखों में एक ही मिलते है।


यह तो घर है प्रेम का, उंचा अधिक ऐकांत

सीस काटि पग तर धरै, तब पैठे कोई संत।

अर्थ- यह घर प्रेम का है। बहुत उँचा और एकांत है। जो अपना शीश काट कर पैरों के नीचे रखने को तैयार हो तभी कोई संत इस घर में प्रवेश कर सकता है। प्रेम के लिये सर्वाधिक त्याग की आवश्यकता है।


सही हेतु है तासु का, जाको हरि से टेक टेक

निबाहै देह भरि, रहै सबद मिलि ऐक।

अर्थ- ईश्वर से प्रेम ही वास्तविक प्रेम है। हमे अपने शक्तिभर इस प्रेम का निर्वाह करना चाहिये और गुरु के निर्देशों का पूर्णतः पालन करना चाहिये।


हरि रसायन प्रेम रस, पीबत अधिक रसाल

कबीर पिबन दुरलभ है, मांगे शीश कलाल।

अर्थ- हरि नाम की दवा प्रेम रस के साथ पीने में अत्यंत । मधुर है। कबीर कहते हैं कि इसे पीना अत्यंत दुर्लभ है क्यों कि यह सिर रुपी अंहकार का त्याग मांगता है।


सबै रसायन हम किया, प्रेम समान ना कोये

रंचक तन मे संचरै, सब तन कंचन होये।

अर्थ- समस्त दवाओं-साधनों का कबीर ने उपयोग किया परंतु प्रेम रुपी दवा के बराबर कुछ भी नहीं है। प्रेम रुपी साधन का अल्प उपयोग भी हृदय में जिस रस का संचार करता है उससे सम्पूर्ण शरीर स्वण समान उपयोगी हो जाता है।


यह तट वह तट ऐक है, ऐक प्रान दुइ गात

अपने जीये से जानिये, मेरे जीये की बात।

अर्थ- प्रेम की धनिष्टता होने पर प्रेमी और प्रिय दोनों एक हो जाते हैं। वस्तुतः वे एक प्राण और दो शरीर हो जाते हैं। अपने हृदय की अवस्था जानकर अपने प्रेमी के हृदय की स्थिति जान जाते हैं।


प्रेरेम बिना धीरज नहि, विरह बिना वैराग

ज्ञान बिना जावै नहि, मन मनसा का दाग।

अर्थ- धीरज से प्रभु का प्रेम प्राप्त हो सकता है। प्रभु से विरह की अनुभूति हीं बैराग्य को जन्म देता है। प्रभु के ज्ञान बिना मन से इच्छाओं और मनोरथों को नहीं मिठाया जा सकता है।


प्रेरेम छिपाय ना छिौ, जा घट परगट होय

जो पाऐ मुख बोलै नहीं, नयन देत है रोय।

अर्थ- हृदय का प्रेम किसी भी प्रकार छिपाया नहीं जा सकता । वह मुहँ से नहीं बोलता है पर उसकी आँखे प्रेम की विह्वलता के कारण रोने लगता है।

By rajwo

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