जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप (अर्थ)
जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप । पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ।। अर्थ: निराकार ब्रह्म का कोई रूप नहीं है वह सर्वत्र व्यापक है न वह…
ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर मांहि (अर्थ)
ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर मांहि । मूर्ख लोग न जानिए, बाहर ढूँढ़त जांहि । अर्थ: जिस प्रकार नेत्रों के अंदर पुतली रहती है और वह सारे संसार…
जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान (अर्थ)
जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान । जैसे खाल लुहार की, सांस लेतु बिन प्रान ।। अर्थ: जिस आदमी के हृदय में प्रेम नहीं है वह श्मशान…
जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं काम (अर्थ)
जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं काम । दोनों कबहूं ना मिले, रवि रजनी एक ठाम ।। अर्थ: जहाँ पर काम वासना है वहाँ पर भगवान का नाम…
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप (अर्थ)
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप । जहाँ क्रोध तहाँ काल है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ।। अर्थ: जिस आदमी में दया है तो वहाँ पर ही…
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल (अर्थ)
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल । तोकू फूल के फूल है, बांकू है तिरशूल ।। अर्थ: कबीर जी कहते हैं कि जीव यदि तेरे लिए कोई कांटे…
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय (अर्थ)
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय । नाता तोड़ हरि भजे, भकत कहावै सोय ।। अर्थ: जब तक संसार की प्रवृत्तियों में जीव का मन लगा…
जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव (अर्थ)
जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव । कह कबीर वह क्यों मिले, निःकामा निज देव ।। अर्थ: जब तक भक्ति स्वार्थ के लिए है तब तक…
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं हम नाय (अर्थ)
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं हम नाय । प्रेम गली अति साँकरी, तामे दो न समाय ।। अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जीव कहता है…
जबही नाम हृदय धरा, भया पाप का नास (अर्थ)
जबही नाम हृदय धरा, भया पाप का नास । मानो चिनगी आग की, परी पुरानी घास । अर्थ: जब भगवान का स्मरण मन से लिया जाता है तो जीव के…